कभी स्कूल के मैदान अनंत आकाश में उड़ने का अहसास दिलाते थे,
खुली हवा में ठहाकों की गूँज सुनाते थे।
जिसके हर कोने में एक दोस्ती,एक शरारत पनपती थी,
जिसके पेड़ों से अंबिया की चोरी हुआ करती थी।
पर अब...
अब बचपन कैद है
लेकिन पर कटने का एहसास ना हो,
इसलिए ‘वीकेंड ट्रिप’ पर जाते हैं,
फलों को तोड़ कर खाने का अमूल्य अनुभव, मूल्य दे कर पाते हैं।
बचपन तो क्या यहाँ जवानी भी कैद है और कैद है बुढ़ापा भी ।
बरामदे में बैठकर चाय की सुड़कियों का स्वाद यहाँ कहाँ,
घर के बगीचे की रखवाली करने का मजा यहाँ कहाँ,
पक्षियों का पानी में अलछल करने का दृश्य यहाँ कहाँ,
सर्दियों की धूप में मूँगफलियां तोड़ते हुए माँ को स्वेटर बुनते देखना यहाँ कहाँ,
पक्षियों को पिंजरे में बंद करते-करते आज हम ही कैद हैं,
आजाद है तो वह मन का पंछी, जो कहता है,
ये है मुंबई मेरी जान पर क्या यह मेरा शहर है?
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