Curious Inkpot- Beyond a Blog

Stories from an Indian Millennial

सफ़रनामा!

आप सोच रहे होंगे यह blog हिंदी में क्यूँ ? मैं कहूँगी क्यूँ नहीं? जहाँ के बारे में यह blog है उसके अनुभव को अभिव्यक्त करने के लिए हिंदी ही उपयुक्त थी। शहरों से दूर गाँवों में बसे भारत की आबो हवा कुछ ऐसी है की अंग्रेज़ी जँचेंगीं नहीं।
वैसे सच तो यह भी है की हम कितनी भी भाषाएं सीख ले, लेकिन जो भाव अपनी मात्रभाषा में है, वह कही नहीं।
ख़ैर ! तो सफ़र शुरू करें?

हमारा सफ़र शुरू हुआ मध्य प्रदेश के आर्थिक राजधानी कहे जाने वाले शहर, इंदौर से। पहली मंज़िल थी ओमकरेश्वर, भारत के १२ सिंध ज्योतिर्लिंग में से एक। इंदौर से ओमकारेश्वर का रास्ता कुछ दो ढाई घंटे का है। ओमकारेश्वर मंदिर, नर्मदा नदी किनारे, एक पहाड़ी पे स्थित है। जहाँ जाने के लिए या तो पुल नहीं तो नाव का इस्तेमाल करना पड़ता है। पुल से नीचे का द्रश्य कुछ विहंगम सा था। दो पहाड़ियों के बीच से बहती नर्मदा नदी और उस पर चलती हुई नावें । वैसे नाव की मोटर के शोर को छोड़ दिया जाए तो बाक़ी सब सुकून देने वाला था। एक बार को लगा की शायद यह बाक़ी तीर्थों से थोड़ा अलग है। कम भीड़, शांति और दूर दूर तक बस कल कल कर बहती नदी। तभी प्रसाद के लिए आवाज़ लगते हुए विक्रेताओं ने हमें धरातल पे ला खड़ा । फिर आए पंडित जो सभी करम कांड कराने को तत्पर थे।

भारत के तीर्थ स्थानों के दर्शन करते करते अब आदत यूँ हो गयी है की मंदिर के प्रवेश द्वार पर पंडितों को देखते ही मन पहले से ही सतर्क हो जाता है। ना जाने धर्म और पूर्वजों के नाम पर कितने पैसे खसोट बैठें। आप कभी रामेश्वरम जाएँ तो बौखला जाएँगे । कभी भारत के मंदिर सिर्फ़ पूजा पाठ नहीं पर ज्ञान, शिक्षा और कौशल के केंद्र हुआ करते थे। अगर ऐसा आज भी होता तो भारत के धर्म स्थलों का द्रश्य कुछ ओर ही होता। TV पर ज़ोर ज़ोर से बहस करने वाले हिंदू धर्म के ठेकेदारों को इस बारें में भी राष्ट्र स्तर पर कुछ सोचना चाहिए। छोटा मुँह बड़ी बात।

फिर भी एक २५-३० साल के पंडित जी माने नहीं। दर्शन अच्छे से कराएँगे कहकर, अपना rate पहले ही बता दिए। मंदिर का प्रांगण काफ़ी साफ़ और व्यवस्थित था। दर्शन भी अच्छे से हुए। पंडित जी ने हमें बहाने से करम कांडों के लिए बैठाने की कोशिश भी की पर हम बहके नहीं। बस निरंतर बहते जल से क्षति होते हुए शिवलिंग को देखते हुए ऐसा लगा की क्यूँ हम इन धरोहरों को आगे की पीढ़ियों के लिए बचाने के बारे में कम सोचते हैं। ऐसा ना हो की आगे की पीढ़ियाँ सिर्फ़ तस्वीर में दर्शन करें। आप सोच रहे होंगे, फ़र्क़ क्या पड़ता है। भगवान मन में होने चाहिए। आपकी बात से मैं पूरी सहमति रखती हूँ। बस इतना ही कहूँगी, काम तो work from home से भी हो सकता है पर फिर भी कंपनियाँ बड़े बड़े आफ़िस रखती है। बाक़ी आप समझदार हैं।

ओमकरेश्वर से हम निकल पड़े रानी अहिल्या बाई होलकर की नगरी, महेश्वर जो नर्मदा तट पर बस हुई है। कानों में indian ocean बैंड के ‘माँ रेवा’ की धुन (नर्मदा का दूसरा नाम रेवा भी है) और हाइवे पे सरपट दौड़ती हमारी गाड़ी। हाइवे पर सिर्फ़ दोनों तरफ़ खेत ही खेत। शुक्र है, हम खाने लेकर चले थे। अप्रैल की तपती धूप में हाइवे पर गन्ने की जूस की रेड़ी दिखी और उसके पास लगा एक छोटा सा तंबू । हमने गाड़ी वहीं रोक ली। दूर दूर तक आबादी का कोई निशान नहीं था।
निशुल्क पियाऊ से जल पीते यात्री
सड़क की दूसरी ओर एक बड़े पेड़ के पास खंडर सा कमरा। तंबू में लाल वेश में भगवा पगड़ी पहने एक बाबा चिल्लम जला रहे थे। हमें देखते ही वो अपनी कुर्सी उठाए सड़क के पास बैठ गए ताकि हम सब खाने खा सके। कुछ खाना हमें बाबा जी को भी दे दिया, उन्होंने खाया और अपना चिल्लम बनाने में वो फिर मस्त हो गए। खाना खाते हुए मेरी नज़र बाबा जी पर पड़ी। कुर्सी पे एक पैर चढ़ा, आँखें बंद कर, गर्दन को एक तरफ़ किए, होटों के एक कोने में चिल्लम दबाए, अपने आसपास के माहौल से बेख़बर, वे जिस तरह से बैठे थे, मुझे मोहम्मद रफ़ी का बस एक गीत मन में आया। “मैं ज़िंदगी का साथ निभाता चला गया, मैं फ़िक्र को धुएँ में...”। इच्छा हुई की इस पल को फ़ोटो में क़ैद कर लूँ। पर जब तक मैं इस झिझक से बाहर आ पाती, बाबा जी सड़क के उस पार चले गए।

ख़ैर हमने भोजन ख़त्म किया और गन्ने का जूस पिए या नहीं पिए इस पर विचार चल ही रहा था की मन में अभी भी उत्सुकता थी बाबा जी की कहानी को तस्वीर में उतारने की। थोड़ा साहस कर हम सड़क के उस पार गए। बाबा जी से पूछा, “क्या आपकी तस्वीर ले लें?”। वो तुरंत तैयार हो गए। बोले, ‘अरे जब वहाँ बैठे थे तो तभी बोल देते’। हैरानी की बात यह है की कैमरे के सामने बाबा जी ऐसे सहज रहे मानो कोई celebrity हों।

ग़ौर से देखोगे तो शायद वैराग्य दिखे।

मन हुआ की इनके बार में और जाना जाए। तो बैठ गयी मैं भी बाबा जी के पास, कौन है, कहाँ से आए हैं पूछने। पता लगा बाबा जी का नाम राणा जी है। हाँ हाँ, हंस ली जिए। पहले मुझे ध्यान में नहीं आया, जब लिखने लगी तो लगा आप लोग ज़रूर पकड़ेंगे। लेखक जब कुछ भी लिखता है तो वो मात्र शब्द नहीं जोड़ रहा होता, उसके मन में वो अपने पाठकों से सामवाद कर रहा होता है। कब हँसेंगे, कब भावुक होंगे...

हाँ तो बाबा जी इंदौर के निवासी हैं , ५ बेटियाँ हैं जो सकुशल अपनी गृहस्थी में व्यस्त हैं और बाबा जी ओमकारेश्वर की यात्रा में निकले थे। रहने का कोई ठौर ठिकाना नहीं है शायद, क्यूँकि बोले, ‘बस सब भोले की कृपा से हो जाता है, जैसे आपने अपने आप से दो रोटी दे दी, कोई थोड़े पैसे दे देता कोई सर पे छत, सब अच्छे से हो जाता है।

सच में सुकून तो सिर्फ़ उसके पास है जिसके पास संसाधन कम हैं । बाक़ी हम सब तो बस दौड़ रहे किसी ना किसी आकांक्षा या ललक की ओर। काश बड़े शहर की भागती दौड़ती इस ज़िंदगी में थोड़ा सा इन बाबा जी जैसा वैराग्य, थोड़ी सी बेफ़िक्री घुल जाती।काश!

उनसे विदा ले हमने अपना ध्यान लगाया गन्ने के जूस पे। ग्राहक की बाट देखते हुए पहले विक्रेता मक्खियाँ मारते थे आजकल मोबाइल चलाते हैं। हमारें जूस वाले भैया मोबाइल में कुछ यूँ ही तल्लीन थे। सही में India तो भारत के गाँवों में पहुँच चुका है, पर भारत के गाँव कब India तक पहुँचेंगे?
फ़ोन में व्यस्त
गन्ने की जूस से हमारा पुराना रिश्ता है। बड़े शहरों का तो पता नहीं पर छोटे शहरों के हर बच्चे का होता है। शिवरात्रि के समय शिवमंदिर के पास लगे मेले में भाई और पिताजी के साथ हर वर्ष गन्ने के जूस का आनंद लेते थे। मिट्टी का किचन सेट, पानी पर केवल २ दिन चल ख़राब हो जाने वाली नाँव और बुलबुले बनाने वाला पानी जो घर पे कितना भी ईज़ी या डिटर्जेंट घोलने पर भी ना बने! यह सब तो साथ में आते ही थे।फिर एक साल गन्ने के जूस पीने से तबियत थोड़ी नासाज़ हो गयी, बस तबसे फूँक फूँक कर पीते हैं। यहाँ स्थिति थोड़ी साफ़ लग रही थी तो हमने सोचा क्यूँ नहीं! तपती दोपहरी में ठंडा ठंडा गन्ने का जूस, भाई वाह!

सफ़र बढ़ चला, मध्य प्रदेश के पुरातन शहर महेशमती यानी महेश्वर की ओर...




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